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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२४८

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हैं। मान लीजिए कि सारा विश्व सूक्ष्म दशा को वा संकोच दशा को प्राप्त हो रहा है। हम सब अणु रूप में हो जाते हैं; पर इस विकार का हमें अनुभव नहीं होगा। कारण यह है कि हमारे सब अंश साथ ही साथ संकोच वा लय को प्राप्त होते रहेंगे। सबका इसी प्रकार लय हो जाता है; फिर पुनः सृष्टि होती है। कारण से कार्य्य की उत्पत्ति होती है और फिर सब कारण में लय हो जाते हैं।

जिसे हम आजकल मैटर वा द्रव्य कहते हैं, प्राचीन सांख्य वा योगवाले उसे भूत कहते थे। उनके मतानुसार एक ही भूत है जो नित्य है; अन्य भूत उसी से उत्पन्न होते हैं। उस भूत का नाम आकाश है। वह बहुत कुछ आजकलवालों के ईथम से ही मिलता जुलता है, पर वह ठीक वैसा नहीं है। इस भूत के साथ आदि शक्ति रहती है जिसे प्राण करते हैं। प्राण और आकाश के मेल से सारे भूतों की सृष्टि होती है। प्रलय आने पर कल्पांत में सबका लय हो जाता है और आकाश और प्राण रह जाते हैं। ऋग्वेद में एक मंत्र है जिसमें उत्तम कविता में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है। प्राण था, पर गति न थी; ‘आनिद्वातं’ अर्थात् गति रहित, निष्कंप। जब कल्प का आरंभ होता है तब ‘आनिद्वातं’ में कंप उत्पन्न होता है। प्राण आकाश में आघात पर आघात करता है। अणुओं का संघात होने लगता है और अणु के योग से अन्य भूतों की सृष्टि होती है। हम देखते हैं कि लोगों ने उसका कैसा अद्भुत अनुवाद प्रलय