पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२४९

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किया है। लोग दार्शनिकों और भाष्यकारों को अनुवाद करते समय पूछते ही नहीं और न उन्हें स्वयं मस्तिष्क है। नासमझ लोग तीन अक्षर संस्कृत के पढ़ लेते हैं और लगते हैं अनु- वाद करने। वे अनुवाद में भूतो को वायु, अग्नि आदि लिख मारते हैं। यदि वे भाष्यों को देखें तो जान पड़ेगा कि उनका अभिप्राय कभी वायु आदि से नहीं है।

आकाश प्राण के निरंतर आघात से वायु वा कंप को उत्पन्न करता है। वायु कंप करता है। कंप बढ़ता जाता है और संघर्ष उत्पन्न होता है जिससे ताप वा तेज की उत्पत्ति होती है। फिर इस ताप से अप वा द्रव्य की उत्पत्ति होती है। फिर वह द्रव घनत्व को प्राप्त होता है। हम ऊपर देख चुके हैं कि पहले आकाश वा ईथर था; फिर कंप हुआ, फिर ताप, फिर वह द्रव हुआ और वही घनत्व को प्राप्त हो गया। यह फिर पूर्व पूर्व दशा को प्राप्त होता हुआ लय को प्राप्त होता है। घन द्रव होता है, द्रव ताप, फिर ताप कंप हो जाता है और कंप के शांत होने पर कल्पांत आ जाता है। उस समय सब लय हो जाते हैं। फिर पुनः उत्पत्ति होती और पुनः लय होता है। आकाश के बिना प्राण कुछ कर नहीं सकता। जो हमें गति, कंप वा विचार के रूप में दिखाई पड़ता है, वह सब प्राण ही का विकार है। जो हमें भूत, द्रव्य, रूप वा अवरोध के रूप में दिखाई पड़ता है, वह आकाश का ही विकार है। प्राण अकेला रह नहीं सकता और न बिना दूसरे मध्यस्थ के काम कर सकता है। जब