सांख्यशास्त्र के विद्वान् प्रकृति को जड़ कहते हैं और गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति का लक्षण बतलाते हैं। यह स्वभाव- सिद्ध है कि साम्यावस्था गति हो ही नहीं सकती। प्रारंभिक अवस्था में किसी प्रकार की गति नहीं होती, पर नितांत साम्या- वस्था रहती है। प्रकृति तब निर्विकार रहती है; क्योंकि विकार वा नाश तो तब होता है, जब वह चल और परिणाम को प्राप्त होती है। सांख्य के अनुसार अणु आदि में नहीं होते। इस विश्व की सृष्टि अणु से नहीं होती; अणु तो द्वितीय वा तृतीय विकार दशा में उत्पन्न होते हैं। आधुनिक ईथर के सिद्धांत के संबंध में यदि आप ईथर को अणुवाला मानें तो उससे कुछ काम न चलेगा। इसकी व्याख्या अधिक स्पष्ट शब्दों में यह है। मान लीजिए कि वायु में अणु हैं और हम यह भी हम जानते हैं कि ईथर सब जगह व्याप्त और भरपूर है और वायु के अणु उसी ईथर में हैं और उसी पर तैरते हैं। अब यदि ईश्वर भी अणुवाला हो तो ईथर के दो अणुओं के बीच अवकाश रह जायगा। फिर उस अवकाश में क्या रहेगा? यदि आप इसके लिये किसी और सूक्ष्म ईथर को मानें तो उस सूक्ष्म ईथर के अणुओं के मध्य के अवकाश में रहने के लिये किसी और ईथर की आवश्यकता पड़ेगी; और अंत को पारावार न रहेगा और अनवस्था दोष आवेगा। सांख्य में इसे अकारण
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