पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२६१

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जिज्ञासा आरंभ की; इस विश्व के मानसिक अंश की छानबीन की और उनको जो निश्चय हुआ, वही हमें बाह्य अंश की छानवीन से हुआ। कारण यह है कि दोनों मार्ग एक ही स्थान पर पहुँचने के हैं।

आप जानते हैं कि विश्वविधान के संबंध में प्रकृति का आदि विकार महत्तत्व है। यही प्रकृति की पहली विकृति है। इसे स्वयं चेतन मत समझो, यह ठीक नहीं है। चित् महत् का एक अंश मात्र है। महत् व्यापक है। इसमें चित्, अतिचित् और उपचित् सभी आ जाते हैं। चित् की कोई अवस्था विशेष मानना ठीक नहीं है। प्रकृति में आपको अपनी आँखों के सामने कुछ विकार दिखाई पड़ते हैं और आप उन्हें देखकर यह जानते हैं कि यह विकार है। पर अन्य कितने ही ऐसे विकार हैं जिन्हें हम इंद्रियों द्वारा ग्रहण नहीं कर सकते। वे बहुत सूक्ष्म हैं। पर उनका कारण वही है। महत्तत्व ही इन विकारों का कारण है। महत्तत्व से ही अहंकार उत्पन्न होता है। यह सब पदार्थ हैं। द्रव्य और मन में कोई अंतर नहीं है, केवल मात्रा ही का अंतर है। पदार्थ एक ही है, कहीं सूक्ष्म कहीं स्थूल; एक हो बदलकर दूसरा हो जाता है। यह आज- कल के भौतिक विज्ञानवादियों के मत से मिलता भी है। इस सिद्धांत पर विश्वास करके कि मन मस्तिष्क से पृथक् नहीं है, आगे के झगड़ों से छुट्टी मिल जाती है। अहंकार से विकार द्वारा दो भेद होते हैं। एक से इंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं। इंद्रियाँ दो