पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२६६

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प्रकार के भेदों में अर्थात् चित्, अतिचित् और उपचित् में व्याप्त है।

अब एक और सूक्ष्म प्रश्न आता है जो प्रायः पूछा जाता है। वह यह है कि यदि किसी पूर्ण ईश्वर ने इस विश्व को रचा है तो फिर इसमें अपूर्णता क्यों है? जिसे हम विश्व कहते हैं, वह उतना ही मात्र है जो हमें दिखाई पड़ता है। इसके आगे क्या है, हम देख नहीं सकते। अब वही प्रश्न असंभव हो जाता है। यदि हम किसी वस्तु के एक अंश को लेकर देखें तो वह हमें विषम जान पड़ेगा। बहुत ठीक। विश्व हमें विषम जान पड़ता है, क्योंकि हम उसे विषम बना देते हैं। कैसे? प्रमाण क्या है? पहले यह तो विचारिए कि ज्ञान कहते किसे हैं? किसी वस्तु को उसी प्रकार की वस्तु से मिलाने का नाम ज्ञान है। आप सड़क पर जाते हैं और एक मनुष्य को देखकर कहते हैं कि हाँ यह मनुष्य ही है; कारण यही है कि आप अपने उस संस्कार को जो आपके चित्त पर है, स्मरण करते हैं। आपने अनेक मनुष्यों को देखा है और प्रत्येक मनुष्य का संस्कार आपके चित्त पर बना है। ज्यों ही आप उसे देखते हैं, आप उसे अपने भांडार के संस्कारों से मिलाते हैं; और यदि वैसा ही चित्र वा संस्कार मिल जाता है तो आपका संतोष हो जाता है। आप उसे उसी के साथ लगाकर रख देते हैं। जब नया संस्कार आता है और उसी का तद्रूप संस्कार मिल जाता है, तब आपको संतोष हो जाता है और इसी मिलान को ज्ञान कहते हैं। एक