सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ २५५ ]


समाधान कर सकते हैं? अनेक कारणों से कार्य्य की उत्पत्ति होती है। संसर्ग को तो एक प्रकार का कार्य्यौं का संपादक ही कहना पड़ेगा। हम अपने संसर्ग के आप ही कारण होते हैं। जैसा हमारे पूर्व का संसर्ग होता है, वैसा ही हमारा वर्त- मान संसर्ग भी होता है। मद्यप स्वभावतः नगर की निकृष्ट गलियों में गिरते हैं।

आप समझते हैं कि ज्ञान क्या पदार्थ है। ज्ञान कहते हैं नए संस्कारों को पुराने संस्कारों के साथ मिलाकर रखने को, उन्हींसे मिलाकर उसे पहचानने को। पहचान किसका नाम है? पूर्व के संचित संस्कारों से नए को मिलाकर देखने को कि वह तद्रूप है वा नहीं। अब यदि ज्ञान पूर्व संचित संस्कारों से नए संस्कार को मिलाने ही का नाम है तो इसका यही अर्थ है कि उस प्रकार के एक एक संस्कार को उलट उलटकर देखना। क्या यह ठीक नहीं है? मान लीजिए कि आप एक कंकड़ी उठाते हैं। उसे मिलाने के लिये आपको वैसी ही सब कंकड़ियों को उठाकर देखना पड़ेगा। विश्व के प्रत्यक्ष के संबंध में हम ऐसा कर ही नहीं सकते; क्योंकि हमारे मन के भांडार में इस प्रकार का केवल एक ही चित्र है; दूसरा कोई वैसा प्रत्यक्ष ज्ञान है ही नहीं जिससे हम उसे मिला सकें। हम उसे और तद्रूप संस्कार के साथ मिला नहीं सकते। यह विश्व हमारे चित्त से बाहर है, अत्यंत अद्भुत और अनोखा है। इसके जोड़ का भीतर कोई है ही नहीं। मिलावें तो