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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२७०

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सूक्ष्म जगत् में हमें एक अंश का ज्ञान होता है, केवल उसके मध्य का। हमें न तो उपचित् का न अतिचित् का ज्ञान होता है; अर्थात् न हममें सहज बुद्धि रहती है न अवभास रहता है। हममें चित् मात्र रहता है। यदि कोई यह कहता है कि मैं पापी हूँ तो वह झूठ कहता है, क्योंकि उसे अपना ज्ञान नहीं है। वह महा अज्ञानी है; उसे अपने एक अंश का ज्ञान है, क्योंकि वह उतना ही जानता है जितने में वह है। यही दशा विश्व के ज्ञान की भी है। यह संभव है कि बुद्धि से केवल उसके एक अंश को हम जान सकें, पर समस्त को नहीं जान सकते। कारण यह है कि विश्व सहजबोध, चित् वा विवेक, अवभास तथा व्यक्तिगत और विश्वगत महत् से बना है।

प्रकृति में विकार कौन उत्पन्न करता है? हम जहाँ तक देखते हैं, प्रकृति जड़ है। यह सब संयोगज तथा जड़ है। जहाँ तक नियम है, वहाँ तक अचेतन है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, इच्छा इत्यादि सब कुछ जड़ ही हैं। पर सब में किसी और का प्रतिबिंब चित् रूप में पड़ता है जिसे सांख्य में पुरुष कहते हैं। पुरुष ही इन सारे विकारों का इच्छारहित कारण है। अर्थात् वही पुरुष, जब उसे विश्व की दृष्टि से देखें तो, ईश्वर कहा जाता है। इसी लिये कहा जाता है कि भगवदिच्छा से ही सृष्टि होती है। यह कहने के लिये तो ठीक है, पर हम देखते हैं कि यह यथार्थ में ठीक नहीं है। यह हो कैसे सकता है। इच्छा तो प्रकृति का तीसरा वा चौथा विकार है। इसके पहले

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