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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२७१

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बहुत कुछ था; उसे किसने उत्पन्न किया? इच्छा इत्यादि सब संयोगज और प्रकृति के विकार मात्र हैं। इच्छा से प्रकृति की उत्पत्ति नहीं हो सकती। केवल इच्छा निरर्थक है। अतः यह कहना कि भगवदिच्छा से सृष्टि हुई, निरर्थक है। यह चेतनता के एक अंश मात्र को घेरती है और हमारे मस्तिष्क में गति करती है। यह इच्छा नहीं है जो हमारे शरीर में काम कर रही है, विश्व में काम कर रही है। विश्व इच्छा से नहीं चलता। यही कारण है कि इच्छा से सृष्टि का समाधान नहीं होता। थोड़ी देर के लिये मान लीजिए कि इच्छा ही शरीर को चलाती है। हम देखते हैं कि हम अपनी इच्छा से काम नहीं कर सकते। फिर हमारा क्षय क्यों होता है? यह हमारा दोष है। हमें इच्छा को मानने का कोई अधिकार नहीं है। वैसे ही यह भी हमारा ही दोष है कि हम इच्छा को विश्व का संचालक मानते हैं; और आगे चलकर देखते हैं कि उससे काम नहीं चलता। अतः पुरुष इच्छा नहीं है, न वह महत् है; क्योंकि महत् स्वयं विकार है। बिना मस्तिष्क में कुछ द्रव्य हुए महत् होता ही नहीं। जहाँ महत् है, वहाँ कुछ उसी प्रकार का द्रव्य रहता है, जिसके पिंड को मस्तिष्क कहते हैं। जहाँ महत् है, वहाँ वह किसी न किसी रूप में अवश्य रहता है। पर महत् संयोगज विकार है। अब यह पुरुष क्या हैं? ने यह महत् है, न इच्छा है, पर उन दोनों को कारण है। उसके रहने के कारण उनमें गति और विकार होता है। वह