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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२७३

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एक पुरुष ही चेतन है। यही सांख्य का पुरुष है। इससे निश्चय रूप से सिद्ध होता है कि पुरुष सर्वगत है। जो सर्वगत नहीं, वह बद्ध होता है। सब बंधन कारण से होते हैं। जो किसी कारण से होता है, उसका आदि और अंत भी होता है। यदि पुरुष बद्ध है तो उसका नाश है, वह मुक्त नहीं, वह निर्विकार नहीं; पर कुछ उसका हेतु है, अतः वह सर्वगत है। कपिल अनेक पुरुष को मानते हैं―एक नहीं अनंत संख्यक। आप एक हैं, मैं एक हूँ, इसी प्रकार सब एक एक हैं। अनंत संख्यक वृत्त, सब अनंत और विश्व भर में व्याप्त हैं। पुरुष न तो मन है न प्रकृति, पर उसी का प्रतिबिंब है; उसी से हमें बोध होता है। हम जानते हैं कि वह सर्वगत है और आदि- अंत रहित। न उसका जन्म है न मरण। प्रकृति उस पर अपना आवरण डालती रहती है; वही जन्म और मरण है। पर वह स्वभाव से शुद्ध है। यहाँ तक हमें सांख्य दर्शन के विचार अपूर्व जान पड़ते हैं।

अब हम इसके विरुद्ध प्रमाण को लेते हैं। यहाँ तक तो ठीक छान बीन है, सांख्य अखंडनीय है। हम देखते हैं कि इंद्रियों के गोलक और इंद्रिय के विभाग से जान पड़ता है कि वे असंग नहीं हैं,अपितु संयोगज हैं; और इंद्रिय और तन्मात्रा के विभाग से अहंकार भी प्रकृति का ही विकार जान पड़ता है; महत् भी प्रकृति का विकार मात्र है और अंत को हमें पुरुष मिलता है। यहाँ तक तो कोई आपत्ति नहीं है। पर हम सांख्य