पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२७५

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यह प्रकृति सत्, रज और तम से बनी है। गुण नहीं हैं अपितु द्रव्य हैं; भूत हैं जिनसे सारे विश्व की सृष्टि हुई है। कल्प के आदि में उनकी साम्यावस्था रहती है। जब सृष्टि आरंभ होती है, तब उनमें संयोग पर संयोग होने लगता है और वही विश्व के रूप में व्यक्त हो जाते हैं। उसका पहला विकार महत् है। उससे अहंकार उत्पन्न होता है। सांख्य के अनुसार अहंकार एक तत्व है। अहंकार से मन उत्पन्न होता है; फिर उससे इंद्रियों और तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। तन्मात्राओं का विकास चित्त से होता है। इन्हीं तन्मात्राओं से भूतों की उत्पत्ति होती है। तन्मात्राएँ देख नहीं पड़तीं; पर जब वे स्थूल हो जाती हैं, तब हम उन्हें इंद्रियों द्वारा प्रत्यक्ष कर सकते हैं।

महत्तत्व, अहंकार और मन की शक्तियों से जब चित्त काम करता है, तब उससे एक शक्ति उत्पन्न होती है जिसे प्राण कहते हैं। आप इस भाव को नितांत त्याग दीजिए कि प्राण श्वास को कहते हैं। श्वास प्राण का एक कार्य्य है। प्राण उस क्षिप्र क्षोभ शक्ति को कहते हैं जो शरीर को चलाती है और विकार रूप से प्रकट होती है। सबसे पहला और स्पष्ट कर्म जो प्राण का है, वह श्वास की गति है। प्राण का प्रभाव वायु पर है, न कि वायु का प्राण पर है। श्वास की गति के रोकने को प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम इसलिये किया जाता है कि हमें गति पर अधिकार प्राप्त हो। इसका फल यही है कि हमें श्वास के ऊपर अधिकार मिले और हमारे फेफड़े दृढ़ हों।