पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ २६८ ]

ही दशा भीतरी प्रयक्ष की है। जो सच्ची आत्मा हमारे भीतर है, वह भी अज्ञात और अज्ञेय है। उसे 'ख' समझ लीजिए। जब हम उसे जानते हैं, तब हमारा ज्ञान ख+मन है। ख का आधात मन पर पड़ता है। अतः सारा विश्व हमारे लिये क+ मन (बाह्य) और ख+मन (आभ्यंतर) है जिसमें क और ख विश्व के बाह्य और आभ्यंतर जगत् के मूल पदार्थ के लिये हैं।

वेदांत के अनुसार चेतनता वा अहंकार के तीन प्रधान लक्षण हैं अर्थात् मैं हूँ, मैं जानता हूँ, मैं सुखी हूँ। यह भाव कि "मुझे कुछ इच्छा नहीं है, मैं शांत और आनंदमय हूँ, कोई मेरी शांति में विघ्न नहीं डाल सकता" जो कभी कभी हममें उत्पन्न हुआ करता है, इसका मुख्य हेतु यह है कि अपने जीवन के आधार-भूत हम ही हैं। जब वही परिमित हो जाता है और मिल जाता है, तब वही सत् विकार, चित् विकार और आनंद विकार के रूप में प्रकट होता है। सब मनुष्य हैं, सब मनुष्य अवश्य जानते हैं और सब प्रेम में उन्मत्त होते हैं। वह प्रेम करना त्याग नहीं सकते। छोटे से बड़े तक सब अवश्य प्रेम करते हैं। 'ख' जो आभ्यंतर मूल पदार्थ है, जब मन से मिलता है, तब सत् ,चित् और आनंद को उत्पन्न करता है जिसे वेदांत में सच्चिदानंद कहते हैं। शुद्ध सत्, अनंत, असंग, केवल और निर्विकार है। वही मुक्त आत्मा है। जब वही मन से मिल जाता है, मैला हो जाता है, तब उसी को प्रत्यक्ष सत् कहते हैं। तब वही मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, वनस्पति आदि रूप धारण