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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३०७

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चाहे जितना तीक्ष्ण और कुशाग्र बुद्धि क्यों न हो, चाहे जितना इस युक्ति के बल को क्यों न समझता हो कि कोई मुक्त नहीं हो सकता, पर वह यह विचारने को विवश होता है कि मैं मुक्त हूँ। वह रुक नहीं सकता। कोई काम नहीं हो सकता जब तक हम यह कहना नहीं आरंभ करते कि हम मुक्त हैं। इसका आशय यह है कि मुक्ति जिसका हम वर्णन करते हैं, आकाश की वह झलक है जो बादलों से छनकर आती है; और वही स्वच्छ नील आकाश है जो इसके परे है। इस भाव में विशुद्ध मुक्ति कहाँ। इस मृग-जल, इस मिथ्या जगत् में, इस इंद्रियों के संसार में, शरीर और मन में मुक्ति रह ही नहीं सकती। यह सब स्वप्न है जिसका न आदि है, न अंत; अनिरुद्ध और आनिरोध्य जो हमारे इस विश्व के विचार से बुरा, छिन्न भिन्न और विषम है। स्वप्न में जब आप बीस सिरवाले राक्षस को देखते हैं कि आपके पीछे दौड़ रहा है और आप भाग रहे हैं, तब आप उसे संसार-दृष्ट्या अयुक्त नहीं समझते, ठीक ही समझते हैं। नियम ऐसा ही है। जिसे आप नियम कहते हैं, वह यदृच्छा है; उसका कुछ अर्थ नहीं है। उस स्वप्न-दशा में आप से नियम कहते हैं। माया में जब तक यह देश-काल और परि- णाम का नियम है, तब तक मुक्ति नहीं। यह सब भाँति भाँति की पूजा-प्रतिष्ठा इसी माया के अंतर्गत है। ईश्वर की भाव हो वा मनुष्य का भाव वा पशु का भाव, सब इसी माया में है। इस प्रकार सब व्यामोह मात्रा है, सब स्वप्न है। पर