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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३०८

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स्मरण रखिए, आप उन अद्भुत मनुष्यों की भाँति कभी तर्क न कीजिएगा जो आजकल तर्क किया करते हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर का विचार ही भ्रम है और संसार का विचार सत्य है। दोनों विचारों का एक ही तर्क वा युक्ति से समर्थन और खंडन हो सकता है। वही सच्चा नास्तिक हो सकता है जो इस लोक और परलोक दोनों को न माने। वही युक्ति दोनों के लिये हो सकती है। वही भ्रम ईश्वर से लेकर छोटे जंतु तक में हो सकता है और घास के गुच्छे से लेकर जगत्कर्ता तक में व्याप्त है। एक ही तर्क से उनका समर्थन और खंडन होता है। उसी मनुष्य को जिसे ईश्वर के विचार का मिथ्यात्व देख पड़ता है, अपने शरीर और अपने मन का मिथ्यात्व भी देख पड़ना चाहिए। जब ईश्वर विलीन होता है, तब शरीर और मन भी विलीन हो जाते हैं; और जब दोनों का विनाश हो गया तब वही रह जायगा जो वास्तविक सत्ता है। वहाँ न चक्षु जा सकता है, न वाणी, न मन। हम उसे न देख सकते हैं, न जान सकते हैं। हम तो यह समझते हैं कि जहाँ तक वाणी, मन, ज्ञान और बुद्धि को पहुँच है, सब माया ही के अंतर्गत हैं, माया के बंधन में हैं। सत्य इससे परे है। वहाँ न बुद्धि पहुँच सकती है, न मन, न वाणी पहुँचती है।

ज्ञान-दृष्ट्या यहाँ तक तो ठीक है, पर अभ्यास की बात और है। सच्चा काम अभ्यास का है। क्या इस अद्वैत के साक्षात्कार के लिये किसी प्रकार के कर्म की आवश्यकता है? अवश्य है।