पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३२२

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गठरी हम नहीं जानते कहाँ से आ जाती है; पर इतना मात्र हम जानते हैं कि इसका अंत होगा। इसी का नाम माया है। यह आकाश में उड़ते हुए बादलों की धजियों का समूह है। उन्हीं के कारण यह विकारवान भासित हो रहा है और आप जो सूर्य्य हैं, निर्विकार हैं। जब आप उसी निर्विकार सत्ता को बाहर से देखते हैं, तब उसे ईश्वर कहते हैं और जब उसी को भीतर से देखते हैं तब उसको ‘मैं’ कहते हैं। पर वह है एक ही। आप से पृथक् कोई ईश्वर नहीं है न आप से ऊँचा कोई ईश्वर है। सब देवता आपके सामने तुच्छ हैं, ईश्वर का वा आकाश के पिता का सारा भाव आप ही की छाया तो है। ईश्वर स्वयं आप का प्रतिरूप है। ‘ईश्वर ने मनुष्य को अपने अनुरूप बनाया’ यह वाक्य मिथ्या है। सत्य यह है कि मनुष्य ने ईश्वर को अपने प्रतिरूप बनाया। सारे विश्व में हम ईश्वर को अपने प्रतिरूप पर बना रहे हैं। हम ही ईश्वर को बनाते, उसके पैरों पर पड़ते और उसकी पूजा करते हैं; और जब यह स्वप्न उदय होता है तब हम उससे प्रेम करते हैं।

यह समझने की बात है कि इस व्याख्यान का तत्व और निचोड़ यह है कि संसार में केवल एक ही सत्ता है; और उसी सत्ता को जब हम भिन्न भिन्न परिस्थितियों से होकर देखते हैं, तब वही पृथ्वी, स्वर्ग, नरक, ईश्वर, देवता, मनुष्य, भूत, प्रेत, राक्षस, संसार और अन्य सारे रूपों में भासित होती है। पर इन बहुतों में 'वह' जो उस एक को इस मृत्यु-सागर में देखता