किया। ज्यों ही आचार्य्य ने अपने अंतेवासी को देखा, उसने
किया। आचार्य ने कहा―‘सत्यकाम, तेरा मुख ब्रह्मविद् के
समान चमकता है। तुझे किसने शिक्षा दी है? सत्यकाम ने
कहा―‘मुझे अमानुष (देवता) ने शिक्षा दी है। पर मैं चाहता
हूँ कि आप भी मुझे शिक्षा दीजिए। क्योंकि मैंने आपके सदृश
आचार्य्यो से सुना है कि आचार्य्य से पठित विद्या ही फलवती
होती है’। फिर तो आचार्य्य ने उसे उसी ज्ञान का उपदेश
किया जो उसे देवताओं ने सिखलाया था; और कुछ भी उठा
न रखा।
अब यदि उन वाक्यों से कि जिनकी शिक्षा वृषभ, अग्नि, और पक्षियों ने दी, रूपक के अंश को अलग कर दीजिए तो इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि उस समय विचार की क्या प्रवृत्ति थी और वह प्रवृत्ति किस ओर जा रही थी। इसमें जिस ऊँचे विचार का बीज पाया जाता है, वह यह है कि सारी बातें हमारे भीतर से ही सुनाई पड़ती हैं। हम ज्यों ज्यों इस सत्य को समझेंगे, हमें जान पड़ेगा कि शब्द उसके भीतर ही से था और ब्रह्मचारी ने समझा कि वह सदा सत्य ही को सुना करता था, पर उसका उचित समाधान न कर सका था। वह समझता था कि शब्द बाहर से आ रहा है, पर वह शब्द सदा उसके भीतर से था। दूसरी बात जो इससे हमें जान पड़ती है, यह है कि ब्रह्मज्ञान वास्तविक वा व्याव- हारिक होना चाहिए। संसार सदा धर्म की व्यावहारिक
३