पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/४४

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है; पर उससे कहीं अच्छा, कहीं श्रेष्ठ प्रतीक वर्तमान है और वह मनुष्य का शरीर है।

स्मरण रखिए कि वेद के दो भाग हैं―कर्मकांड और ज्ञान- कांड। समय बीतने पर कर्मकांड इतना बढ़ गया था और जटिल हो गया था कि उसका सुलझाना असाध्य हो गया था। और हमें जान पड़ता है कि उपनिषद् में कर्मकांड लगभग दूर किए गए हैं, पर धीरे धीरे उन्हें समझाकर। हम देखते हैं कि प्राचीन काल में अग्निहोत्र और यज्ञादि किए जाते थे। फिर दार्शनिक लोग आए और उन लोगों ने अज्ञानी लोगों के हाथ से प्रतीको को छीनने के स्थान में वा उनका खंडन करने के स्थान में, जैसे कि दुर्भाग्यवश आजकल के संशोधक प्रायः किया करते हैं, उन्हें और प्रतीक दे दिए। उन लोगों ने कहा―लो यह अग्नि का प्रतीक है। क्या ही अच्छा है। पर यह पृथ्वी दुसरा प्रतीक है। यह कैसा भव्य और महान् प्रतीक है। यह एक छोटा मंदिर है, पर देखो तो यह सारा विश्व कैसा अच्छा मंदिर है। मनुष्य जहाँ चाहे, उपा- सना कर सकता है। मनुष्य नाना प्रकार की आकृतियाँ बनाते हैं; पर देखो यह कैसी अद्भुत वेदी है―जीता जागता मनुष्य का पिंड; और इस वेदी पर पूजा करना किसी जड़ वेदी पर पूजा करने से कितना श्रेष्ठ और उत्तम है।

अब हम एक अद्भुत सिद्धांत के मत पर पहुँचते हैं। मैं इसे स्वयं नहीं समझता हूँ। मैं आपके सामने उसे पढ़े देता