यदि हम उनके अनुगामी बनें, उनकी शिक्षा मानें, उनके बतलाए मार्ग पर चलें तो वे हमें परवानगी दे देंगे और हम ईश्वर का मुँह देख सकगे। यह सब स्वर्ग की कहानियाँ क्या है? केवल पुरोहितों की अनर्गल बातों के रूपांतर मात्र हो तो हैं।
इसमें संदेह नहीं कि अपौरुषेयता का भाव बड़ा ही घातक है। इससे पुरोहितों, गिरजों और मंदिरों में जो दूकानदारी है, वह रह नहीं जाती। भारतवर्ष में इस समय काल पड़ा है; पर इस समय भी वहाँ ऐसे मंदिर हैं जिनमें राजाओं की आय के मूल्य के गहने आदि भरे पड़े हैं। यदि पुजारी लोगों को इस अपौरुषेयता की शिक्षा दें तो उनका सारा व्यवसाय जाता रहे। पर फिर भी वहाँ हम लोग स्वार्थत्याग करके इसकी शिक्षा देते हैं और पुजारी का ध्यान नहीं करते। आप ब्रह्म हैं, मैं ब्रह्म हूँ। कौन किसको मानता है? कौन किसकी पूजा करता है? तुम ईश्वर के बड़े मंदिर हो। मैं तो किसी मंदिर, मूर्ति वा धर्मयुस्तक को त्यागकर तुम्हारी ही उपासना करूँगा। कितने ही लोगों के विचार इतने डाँवाडोल क्यों हो रहे हैं? वे मछली को भाँति हमारे हाथों से फिस- लना चाहते हैं। वे कहा करते हैं कि हम एक नहीं सुनते, कर्म करना जानते हैं। बहुत अच्छा। यह तो बतलानो, इधर-उधर पूजा करने से तुम्हारी पूजा करना अच्छा है या नहीं? मैं तुम्हें देखता, समझता और जानता हूँ कि तुम ईश्वर के अति- रिक्त कुछ हो ही नहीं। इससे बहुतों को भय भले ही लगे पर