कि सब सेब डाल से अलग होकर गिर पड़ते हैं, तब हम उसे
गुरुत्व का नियम कहते हैं और हमें संतोष हो जाता है। बात
यह है कि विशेष ज्ञान से हमें सामान्य ज्ञान प्राप्त होता है।
हमें चाहिए कि जब हम धर्म पर विचार करने लगें, तब उन्हीं वैज्ञानिक नियमों को काम में लावें। वही नियम इस काम के लिये भी ठीक हैं। बात तो यह है कि देखने से हमें जान पड़ता है कि सब जगह उन्हीं नियमों से काम लिया गया है। इन पुस्तकों के देखने से, जिनका आशय मैंने आपके सामने प्रकट किया है, जो बात हमें सबसे प्राचीन जान पड़ती है वह यही है कि ‘विशेष से सामान्य ज्ञान की प्राप्ति होती है’। हम देखते हैं कि कैसे देवता लोग (प्रकाशमान) मिलकर एक तत्व बन गए। इसी प्रकार विश्वविधान पर विचार करते हुए वे ऊँचे से ऊँचे पहुँचे हैं―(स्थूल) द्रव्य से तन्मात्रा को और इससे वे व्यापक आकाश को, उससे वे सर्वव्यापक शक्ति प्राण को पहुँचे हैं। इन सब में वही बात पाई जाती है कि एक दूसरे से पृथक् नहीं हैं। आकाश ही सूक्ष्म रूप होकर प्राण था वा यों कहिए कि प्राण ही स्थूल होकर आकाश हुआ; और वही आकाश क्रमशः अधिक अधिक स्थूल होता गया।
पुरुषविध ईश्वर का सामान्यवाद उद्देश की दृष्टि से दूसरा विषय है। हम देख चुके हैं कि इस सामान्यवाद का ज्ञान कैसे हुआ और पूर्ण चेतनराशि को ईश्वर कहा गया है। पर एक कठिनाई पड़ती है। इस सामान्यवाद में अव्याप्ति दोष है। हम