प्रकृति के केवल एक अंश को ले लेते हैं अर्थात् चेतन मात्र
को और उसी पर सामान्यवाद से काम लेते हैं; और दूसरे अंश
को छूते नहीं। अंतः इसमें पहले तो यह सामान्यवाद ही दोष-
ग्रस्त है। इसमें एक और दोष है और वह रीति वा नियम से
संबंध रखता है। प्रत्येक पदार्थ का बोध उसके स्वरूप से होना
चाहिए। संभव है कि कुछ ऐसे लोग भी रहे हों जिनका विचार
यह था कि सेब जो भूमि पर गिरते हैं, उन्हें कोई भूत खींच
लेता है। पर बात गुरुत्व के ही नियम की थी। यद्यपि हम जानते
हैं कि यह यथार्थ लक्षण नहीं है, पर फिर भी यह दूसरे से
कहीं अच्छा है। कारण यही है कि यह वस्तु के स्वरूप के आधार
से प्राप्त हुआ है; और दूसरे का आधार बाह्य कारण है। यही
अवस्था हमारे सारे ज्ञानों की है। वह लक्षण जो वस्तु के स्वरूप
के आधार पर किया जाता है, युक्त और व्यापक होता है; और
जो लक्षण बाह्य कारणों के आधार पर किया जाता है, वह
दोषग्रस्त और अयुक्त होता है।
अब पुरुषविध ईश्वर के जगत्कर्तृत्व की परीक्षा करनी है। यदि वह ईश्वर प्रकृति वा संसार से अलग है, इससे उसका कुछ संबंध नहीं है और यह जगत् उसकी आज्ञा से उत्पन्न हुआ है, तो यह सिद्धांत अत्यंत अयुक्त और दोषग्रस्त है; और सारे विश्वासमूलक धर्मों में सदा से यही दोष रहा है। सारे एके श्वरवाद धर्म्म में―जिनमें पुरुषविध ईश्वर माना गया है― जिनमें मनुष्य के ही गुण अधिक झाड़ पोंछकर भरे गए हैं―ये