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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/७०

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दो दोष हैं। उस ईश्वर ने शून्य से वा अपनी इच्छा से इस जगत् की रचना की और वह इससे पृथक् है। इससे दो कठिनाइयाँ पड़ती हैं।

जैसा कि हम देख चुके हैं, यह पर्य्याप्त सामान्यवाद नहीं है; और दूसरी बात यह है कि स्वरूप का यह लक्षण स्वरूप के आधार पर नहीं है। इसमें यह मान लिया गया है कि कार्य्य कारण से अलग है। पर मानवी ज्ञान यह बात प्रकट करता है कि कार्य्य कारण का रूपांतर मात्र है। इसी विचार की ओर सारे आधुनिक विज्ञान की प्रवृत्ति हो रही है और सबसे अंतिम सिद्धांत जिसे लोगों ने स्वीकार किया है, वह विकास- वाद का सिद्धांत है जिसका मूल सिद्धांत यह कि कार्य्य कारण ही का रूपांतर है; कारण का विकारभूत और कारण ही कार्य्य का रूप धारण करता है। यह सिद्धांत कि असद् से सृष्टि हुई, आजकल वैज्ञानिकों की दिल्लगी की बात हो रही है।

अब प्रश्न यह है कि क्या धर्म इस परीक्षा को सह सकता है? यदि धर्म का कोई ऐसा सिद्धांत हो जो इस आँच को सह सके तो आजकल लोग, जो विचारशील हैं ऐसे ही धर्म को स्वीकार करेंगे। और दूसरे सिद्धांत जिन पर लोगों से विश्वास करने के लिये इस कारण कहा जाय कि पुजारी उसे मानने के लिये कहते हैं, संप्रदाय के लोग उसे मानने की आज्ञा देते हैं, पुस्तकों में लिखे हैं, तो इसका परिणाम यह होगा कि कोई उन्हें मानेगा नहीं और सब हँसी में उड़ा देंगे। यहाँ तक कि जिन