पर लोग ऊपर से बड़ी श्रद्धा प्रकट करते हैं, यदि यथार्थ
में देखा जाय तो उनके अंतःकरण में उन पर बड़ी ही अश्रद्धा
रहती है। और कुछ लोगों को तो धर्म का नाम सुनते ही मानो
कँपकँपी आ जाती है और वे यह कहकर उसका तिस्रकार
करते हैं कि यह केवल पुजारियों के ढकोसले हैं।
धर्म को लोगों ने एक प्रकार से जातीयता का रूप दे रखा है। यह सामाजिक बात है जो बच रही है। इसे पड़ा रहने दीजिए। पर धर्म की वह आवश्यकता जो आधुनिक मनुष्यों के पूर्वजों ने समझी थी, नहीं रह गई है। अब लोगों को वे बाते युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होतीं। अब पुरुष-विशेष ईश्वर और उसके स्रष्टा होने की बात जो प्रायः एकेश्वरवाद के नाम से विख्यात है, ठहर नहीं सकती। भारतवर्ष में तो वह वाद बौद्धों के मारे ठहर नहीं सका था और यही विषय था जिसमें प्राचीन काल में उन्हें विजय प्राप्त हुई थी। उन लोगों ने सिद्ध कर दिया कि यदि हम यह मान लें कि प्रकृति में अनंत शक्ति है और वह अपना सारा काम चला सकती है, तो इस बात पर बल देना अनावश्यक है कि प्रकृति से परे भी कुछ और है। और की बात तो अलग, आत्मा की भी आवश्यकता नहीं है।
द्रव्य और गुण के संबंध में भी जो विवाद है वह बड़ा पुराना है और आपको कभी कभी यह जान पड़ेगा कि पुराना पक्षपात आज तक चला जाता है। आप लोगों में कितनों ने
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