पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/७२

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पुस्तकों में पढ़ा होगा कि माध्यमिक काल में, और दुःख से कहना पड़ता है कि उसके बहुत पीछे तक भी, यह शास्त्रार्थ का एक विषय था कि द्रव्य गुण का आधार है या नहीं, लंबाई, चौड़ाई और मोटाई, जिसे जड़ प्रकृति कहते हैं, द्रव्य है वा नहीं। द्रव्य स्थायी है, गुण रहे वा न रहे। इस पर बौद्धों का कथन है―“ऐसे द्रव्य के सिद्ध करने के लिये कोई हेतु नहीं है। गुण ही तो सब कुछ है। आपको गुण के अतिरिक्त बोध किसका होता है?” यही हमारे बहुत से संशयवादियों का भी पक्ष है। क्योंकि यही द्रव्य और गुण का झगड़ा और ऊँचे जाकर अचल और चल के वाद का रूप धारण कर लेता है। संसार परिवर्तनशील है, यह नित्य बदलता रहता है। इसके परे कुछ ऐसा है, जो परिवर्तनशील नहीं है। इस चल और अचल की द्वैत सत्ता को कुछ लोग सत्य मानते हैं और अन्य लोग उससे प्रबल युक्ति के आधार पर कहते हैं कि हमें यह कहने का अधिकार नहीं है कि दो सत्ताएँ हैं। कारण यह है कि हम जो देखते, जानते और विचारते हैं, वह सब चल वा परिवर्तनशील है। यह कहने का आपको अधि- कार नहीं कि इस चल वा परिवर्तनशील से परे भी कुछ है। इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। इसका उत्तर यदि कहीं मिल सकता है तो वेदांत में मिल सकता है। वह यह है कि आपका यह कहना ठीक है कि एक है और वही एक चाहे परिवर्तनशील हो वा चल हो वा अचल। पर यह बात कभी ठीक