नहीं है कि दो हैं; एक तो परिवर्तनशील है और उसके भीतर
कोई और घुसा है जो अचल और व्यापक है। वह एक ही है
जो परिवर्तनशील दिखाई पड़ता है पर सचमुच वह परि-
वर्तनशील नहीं है। हम लोग शरीर, मन और आत्मा को पृथक्
मानते आ रहे हैं; पर वास्तव में वे एक ही हैं और वही एक
अनेक रूपों में भासमान हो रहा है। वेदांत के प्रसिद्ध दृष्टांत
रज्जु और सर्प को लीजिए। कोई अंधकार के कारण वा अन्य
कारणवश, भ्रम से रज्जु को सर्प समझता है। पर जब उसे
ज्ञान हो जाता है, तब साँप जाता रहता है और रज्जु देख पड़ती
है। इस दृष्टांत से यह निश्चय होता है कि जब मन में साँप था,
तब रस्सो नहीं थी; और जब मन में रस्सी है, तब साँप नहीं
रहा। जब हम चारों ओर चल ही चल देखते हैं तब हमारा
मन ‘अचल’ नहीं रहता। पर जब हमें अचल और एक रस देख
पड़ता है तब यह उपपत्ति निकलती है कि अचल नहीं रहा है।
अब आपने दोनों सद् और असद्वादियों का पक्ष समझ
लिया होगा। सद्वादी केवल चल को देखते हैं और असद्-
वादी अचल को। क्योंकि असद्वादी और सच्चे असद्वादी
के लिये जिसे सचमुच प्रत्यक्ष करने की शक्ति उत्पन्न हो गई हो
और जिसके द्वारा उसके परिणाम के सब भाव जाते रहे
हों, परिवर्तनशील विश्व नहीं रह जाता है, यह कहने का
सर्वधा अधिकार है कि सब भ्रम की बातें हैं, कहीं कुछ परि-
वर्तन नहीं है। सद्वादी को परिवर्तन ही परिवर्तन दिखाई
पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/७३
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