सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ ७५ ]

जो मनुष्य की बुद्धि में आ सकता है। और यह विश्व है क्या? केवल उसी अप्रमेय का एक रूपांतर ही तो है। यह क्या है? एक पुस्तक ही तो है और सब उसके पढ़ने के लिये बुद्धि लगा रहे हैं, सब उसका अध्ययन कर रहे हैं। इसमें कुछ न कुछ ऐसा है जो सब मनुष्यों की बुद्धि में समान रूप से आता है। यही कारण है कि मनुष्य की बुद्धि में कुछ बातें एक रूप से आती हैं। हम और आप कुर्सी को देखते हैं; इससे यह स्पष्ट है कि हममें और आपमें कोई ऐसी वस्तु है जो समान रूप से दोनों में है। मान लीजिए कि एक सत्व ऐसा है जिसमें कोई अन्य प्रकार की इंद्रिय है, तो उसे कुर्सी न देख पड़ेगी। पर जिन सत्वों का संघटन एक सा है, उन्हें वही वस्तु दिखाई पड़ेगी। एक प्रकार से यह विश्व अप्रमेय, अपरिणामी और एकरस है, निर्विकार है। विकार उसीका एक रूपांतर मात्र है। क्योंकि पहले तो आपको यह जान पड़ेगा कि जितने विकारी हैं, वे प्रमेय हैं। सब विकार जो हम देखते वा स्पर्श करते हैं वा हमारे ध्यान में आते हैं, प्रमेय हैं; हमारे ज्ञान से परिमित हैं। और पुरुषविध ईश्वर जो हमारे ध्यान में आता है, निस्संदेह विकार मात्र है। वही परिणाम का भाव विकारी जगत् में व्याप्त है और विश्व के कारण ईश्वर दोनों अवस्था में सहज ही प्रमेय समझा जा सकता है; और इतना होते हुए भी वह है वही अपुरुष-विध ईश्वर। यही विश्व जैसा कि हम देख चुके हैं, हमारी बुद्धि से वही अपुरुषविध ईश्वर है। विश्व में जो