यह अर्थ 'तत्व मसि' वाक्य से व्यक्त किया गया है। अतः हम देखते हैं कि अपुरुषविध वा सार्वदेशी पुरुषविध वा एकदेशी का खंडन करने के स्थान में और निरपेक्ष सापेक्ष को जड़ से उखाड़ने के बदले उसे हमें समझा देता है और हमारी बुद्धि और मन में बैठा देता है। पुरुषविध ईश्वर और जो कुछ विश्व में है, सब हमारे विचार में वही अपौरुषेय ब्रह्म है। जब हमारे मन का साथ हमसे छूट जायगा, हमारी लघु व्यक्ति का ध्वंस हो जायगा, तब हम उसमें एकीभूत हो जायँगे। यही 'तत्त्वमसि' वाक्य का अर्थ है कि हमें अपने सच्चे स्वरूप का बोध हो जाय कि हम निरपेक्ष हैं, केवल हैं।
परिमित व्यक्त मनुष्य अपने कारण को भूल जाता है और अपने को अलग समझता है। हम भेद की दशा में अपने स्वरूप को भूल गए हैं। वेदांत की शिक्षा यह नहीं है कि हम भेद को त्याग दें अपितु यह समझें कि हम क्या हैं। सचमुच हम वही हैं। हमारी व्यक्तता वा सत्ता केवल अलग अलग नलियों के समान है जिनमें से होकर वह अप्रमेय सत्ता अपने को व्यक्त कर रही है। सारा विकार जिसकी समष्टि को हम विकाश वा आरोह कहते हैं, उस आत्मा के अपनी अनंत शक्ति को व्यक्त करने के कारण दिखाई पड़ता है। हम बिना उस अप्रमेय को प्राप्त हुए रुक नहीं सकते। हमारा बल, आनंद और ज्ञान स्थिर नहीं रह सकते, अपितु वे बढ़ते जायँगे। अप्रमेय बल, सत्ता और आनंद हमारा है। हमें उन्हें प्राप्त करना