पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/८४

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नहीं है; वे हमारे हैं और हमें उन्हें केवल प्रकट करना रह गया है।

वेदांत का यही मुख्य ज्ञान है। इसका समझना बड़ा कठिन है। बचपन ही से सब लोग मुझे निर्बलता की शिक्षा देने लगे, जन्म से ही लोग यह कहने लगे कि तुम निर्बल हो। ऐसी दशा में मेरे लिये यह जानना कि मुझमें कितना बल है, बहुत ही कठिन है। पर अनुभव और तर्क से मुझे अपने बल का ज्ञान प्राप्त होता है और मैं उसे साक्षात् कर सकता हूँ। सोचो तो सही कि हमें इस संसार में जो कुछ ज्ञान है, वह आया कहाँ से? वह हमारे ही भीतर तो था। बाहर क्या है? कुछ भी तो नहीं। ज्ञान द्रव्य में नहीं है; वह सदा से मनुष्य में है और था। किसी ने एक भी ज्ञान गढ़ा नहीं, मनुष्य ने अपने भीतर से ही उसे निकाला है। यह वहीं भरा था। सारा बट का वृक्ष जो बिगहों में अपनी डालियाँ फैलाए हुए है, एक छोटे से बीज में जो सरसों वा राई के दाने के अष्टमांश से भी छोटा था, भरा था। सारी शक्ति का समूह उसी में तिरोहित था। महान् बुद्धि एक प्रोटोप्लाजम के कोश में छिपी थी, यह हम सब जानते हैं। फिर शक्ति क्यों न रही होगी? हम जानते हैं कि ऐसा ही है। चाहे देखने में यह उलटा क्यों न जान पड़े, पर है यह ऐसा ही। हम सब एक एक प्रोटोल्पाजम के कोश से उत्पन्न हुए हैं। हमारा सारा बल उसी में प्रसुप्त था। आप यह नहीं कह सकते कि वह भोजन से आया। यदि आप