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द्रव्य और गुण एक ही पदार्थ है। वे केवल भिन्न भिन्न रूप में भासमान होते हैं।
हम यह भी देख चुके हैं कि निर्विकार का भाव केवल समष्टि के लिये ठीक हो सकता है, व्यष्टि के लिये नहीं। व्यष्टि का भाव ही विकार के भाव वा गति के भाव से उत्पन्न होता है। जो परिमित है, हम उसे नहीं समझ सकते और न जान सकते हैं, कारण यह कि वह विकारवान है। और समष्टि तो निर्विकार है; क्योंकि वहाँ तो दूसरा कुछ है ही नहीं। विकार संभव है तो कैसे? विकार तो तभी हो सकता है जब तुलना के लिये कोई निर्विकार पदार्थ हो वा कोई ऐसा पदार्थ हो जिसमें उसकी अपेक्षा विकार कम हो।
अद्वैत सिद्धांत के अनुसार आत्मा की व्यापकता, निर्विकारता और अविनाशिता का भाव जहाँ तक हो सके, सिद्ध किया जा सकता है। कठिनाई तो विशेष में पड़ेगी। हम उस द्वैत सिद्धांत को कहाँ ले जायँ जिसका हम पर इतना घनिष्ट प्रभाव है और जिससे हमें छुटकारा पाना है―यह कि परिमित, छोटे और व्यक्त आत्मा पर विश्वास का होना।
हम यह देख चुके हैं कि हमारी अविनाशिता समष्टि के विचार से है। पर कठिनाई तो यह है कि हम समष्टि के अंश के रूप में अपनी अविनाशिता के इच्छुक हैं। हम यह देख चुके हैं कि हम अनंत हैं और वही हमारा वास्तविक स्वरूप है। पर हम अपनी छोटी आत्मा को अनंत बनाना नहीं चाहते