हैं। इसका परिणाम क्या होता है? हम अपने नित्य के
अनुभव से देखते पाते हैं कि यह छोटी आत्माएँ व्यष्टि मात्र
हैं; भेद केवल इतना ही है कि वे नित्य उन्नति करती जा रही
हैं। वे हैं वही, पर फिर भी वह नहीं हैं―अंश अंशी, अंग
अंगी का अंतर है। कल का ‘मैं’ ही आज का “मैं“ है अवश्य;
पर उसमें थोड़ा सा अंतर आ गया है। अब द्वैत के इस
विचार को छोड़कर इन सब विकारों में भी कुछ निर्विकार
है। इस आधुनिक विचार को जिसे विकासवाद कहते हैं, लेकर
देखिए तो जान पड़ता है कि ‘मैं‘ लगातार विकारवान और
विस्तार को प्राप्त होनेवाली सत्ता है।
यदि यह ठीक है कि मनुष्य बिना हड्डीवाले जंतुओं से विकास को प्राप्त होकर बना है, तो बिना हड्डी का जंतु वही है जो मनुष्य है। भेद इतना ही है कि मनुष्य अधिक उन्नत हो गया है। अतः परिमित आत्मा इस विचार से कि वह अनंत सत्ता की ओर बढ़ती जा रही है, एक सत्ता हो सकती है। वह पूर्ण सत्ता तभी होगी जब वह अनंत सत्ता को प्राप्त हो जायगी; पर जब तक प्राप्त नहीं होती, तब तक तो वह विकार को प्राप्त होती और उन्नति करती जा रही है। वेदांत दर्शन में एक विशेषता यह भी है कि वह पूर्व के सिद्धांतों के विवाद को मिटाता है। बहुत अंशों में इसने दर्शन शास्त्र की बड़ी सहायता की है; पर इसने किसी न किसी अंश में उसे हानि भी पहुँचाई है। हमारे प्राचीन दर्शन में जिसे विकासवाद कहते हैं, उसका ज्ञान अवश्य