पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ ८८ ]


था―अर्थात् इस बात का कि उन्नति वा विकास यथा क्रम होता है; और इसी ज्ञान के कारण उन लोगों ने पूर्व के दर्शनों के भेद का परिहार किया था। यही कारण है कि पूर्व के एक भी विचार का तिरस्कार नहीं किया गया है। बौद्ध धर्म में दोष यह था कि उसमें न तो क्षमता थी और न इस निरंतर उन्नति का बोध था; और यही कारण था कि वह पूर्व के विचारों के साथ अपनी संगति नहीं कर सका। वे सबके सब एक आदर्श के लिये थे। उन सबको उसने निष्प्रयोजन और हानि- कारक जानकर त्याग दिया।

धर्म की यह गति बड़ी ही हानिकारक है। मनुष्य को जब कोई नया और अच्छा विचार मिल जाता है और जब वह उन विचारों को जिन्हें उसने छोड़ दिया है, देखता है तो यह सोच लेता है कि वे हानिकारक और निष्प्रयोजन थे। वह यह नहीं विचारता कि वर्तमान दृष्टि से वे कितने ही भोड़े क्यों न जान पड़ते हों, पर वे उसके लिये उस समय उपयोगी थे और उन्हीं के कारण वह उस नए विचार पर पहुँचा। हममें से सबकी गति समान ही है। पहले हमारे विचार भोंडे रहते हैं; फिर उससे उन्नति करते करते हम ऊँचे विचारों तक पहुँचते हैं। उच्च विचार की प्राप्ति के वही कारण होते हैं। यदि वे न होते तो वहाँ तक पहुँचना कठिन होता। यही कारण है कि अद्वैत ऐसे प्राचीन विचारों का तिरस्कार नहीं करता। द्वैतवाद वा अन्य सिद्धांत जो उसके पूर्व के हैं, अद्वैत उन सबको मानता है। यह