पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१३१

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कर्मयोग
 

हैं, सब उसे पाने को सचेष्ट हैं, परमाणु से लेकर मनुष्य तक निर्जीव और जड़ पदार्थों से लेकर पृथ्वी के जीवन की सबसे ऊँची सतह पर स्थित, मनुष्य की आत्मा तक वास्तव में सृष्टि इस स्वतंत्रता के लिये किये गए संघर्ष का ही परिणाम है। प्रत्येक समूह में परमाणु अपनी-अपनी और खींचकर स्वतंत्र हुआ चाहते हैं, परन्तु एक दूसरे से वे बँधे हुये हैं। हमारी धरती सूर्य से दूर छूटकर जाना चाहती है, चंद्रमा धरती से ; सभी में छूटकर विखर जाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। सृष्टि में हम जो कुछ भी देखते हैं, इस स्वतंत्रता के लिये किये गये संग्राम के आधार पर है। इस प्रवृत्ति से प्रेरित हो ऋपि ईश्वर की उपासना करता है, चोर चोरी करता है। जब कर्म की लीक उचित नहीं होती तो हम उसे अशुभ कहते हैं, जब उचित होती है तो शुभ। परंतु प्रेरणा एक है, वहो मुक्त होने की इच्छा । ऋषि अपने बंधनों को जान उनसे छूटना चाहता है ; इसलिये वह उपासना करता है। चोर इस भावना से पीड़ित होता है कि उसके पास अमुक वस्तुएँ नहीं, वह उस इच्छा से छूटना चाहता हैं, मुक्त होना चाहता है । इसलिये वह चोरी करता है। मुक्ति प्रकृति का एकमात्र लक्ष्य है, वह जड़ हो या चेतन ; जाले या अजाने सभी मुक्ति के लिये प्रयत्नपर हैं। ऋपि जिस मुक्ति की कामना करता है वह चोर की मुक्ति से अत्यंत भिन्न है ; ऋषि की मुक्ति से उसे अनन्त अनिर्वचनीय आनंद मिलता है, चोर की मुक्ति उसके लिये और भी बढ़ बंधनों का कारण होती है।