पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१३२

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कर्मयोग
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प्रत्येक धर्म में मुक्ति के लिये यह चेष्टा दखी जा सकती है। वह सभी सदाचार और स्वार्थ-त्याग की नीव है, जिसका अर्थ है, इस शरीर को अपना कह कर न जानना। जब हम किसी को दूसरों का उपकार और शुभ कर्म करते देखते हैं, तब उसका अर्थ है कि वह व्यक्ति"मैं और मेरे के सीमित वृत्त में नहीं रह सकता। स्वार्थ-त्याग का कहीं अंत नहीं। सदाचार की धारणाओं में सर्वत्र ध्येय स्वार्थत्याग ही है। मान लीजिये कोई इस प्रकार पूर्ण त्यागी हो, तो उसका क्या हो? तब वह श्रीमान फलाने- फलाने नहीं रह गये; उसका अनंत विस्तार हो गया। वह छोटा- मा व्यक्तित्व जो उसके भीतर पहले था, अब लुप्त हो गया। वह अनंत में निल गया और यह अनंत विस्तार ही सब धर्मों का, दार्शनिक तथा सदाचार के सिद्धांतों का लक्ष्य है। व्यक्तिगत ईश्वर का उपासक जब इस विचार को इस दार्शनिक रूप से रक्खा देखता है, तो घबरा जाना है। परंतु यदि वह सदाचार का प्रचार करता है, तो स्वयं भी उसी विचार का अनुमोदन करता है। मनुष्य के त्याग की वह कोई सीमा कल्पित नहीं करता। मान लीजिये कोई द्वैतवाद से भी पूर्णता प्राप्त कर ले, तब अन्य पूर्णता प्राप्त किये पुरुषों से उसका विभेद कैसे हो सकेगा? उसे विश्व से मिलकर एक होना पड़ेगा और वैसा करना ही सबका ध्येय है। केवल द्वैतवादी अपने तर्क का सिरे तक अनुसरण नहीं कर सकता। कर्मयोग उस मुक्ति की प्राप्ति है जो मानव-मात्र का लक्ष्य है। प्रत्येक स्वार्थपूर्ण कर्म हमें उससे पीछे की ओर ठेलता है, प्रत्येक