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कर्मयोग
 

निःस्वार्थ कर्म हमें उसके सन्निकट ले जाता है। इसीलिये सदा- चार की केवल एक व्याख्या हो सकती हैं, जो स्वार्थपूर्ण है वह अनाचार है, जो निःस्वार्थ है वह सदाचार।

परंतु यदि सूक्ष्म निरीक्षण किया जाय, तो यह सब इतना सरल न जान पड़ेगा। उदाहरण के लिये, जैसा मैं पूर्व भी कह चुका हूँ, देश के अनुसार सदाचार की बातों में न्यूनाधिक विभि- न्नता होती है। एक ही कर्म एक दशा मैं निःस्वार्थ हो सकता है, अन्य में स्वार्थपूर्ण। इसलिये हम उसकी एक मूल व्याख्या मात्र कर सकते हैं, अन्य विशेषतायें देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार होंगी। एक देश में जो सदाचार है, दूसरे में अना- चार है, क्योंकि परिस्थितियाँ भिन्न हैं। सभी प्रकृति का अभोफ्य मुक्ति है और मुक्ति केवल पूर्ण आत्म-त्याग द्वारा संभव है। प्रत्येक नि:स्वार्थ कर्म, वचन या विचार हमें लक्ष्य की ओर ले जाता है और इस कारण सदाचार है। प्रत्येक धर्म में, प्रत्येक आचार-विचार प्रणाली में आप इस व्याख्या को लागू होते देखेंगे। किन्हीं विचार-धाराओं में सदाचार ईश्वर-कृत माना जाता है। यदि पूछो कि ऐसा क्यों करें और वैसा क्यों न करें, तो उत्तर मिलेगा "क्योंकि ऐसी ही ईश्वर की आज्ञा है।" परंतु उनके विचारों का मूलस्रोत जो कुछ भी हो, तत्त्व की बात वहाँ भी यही है कि अपने आप का विचार न कर उससे छुटकारा पाओ। इस सदाचार की महान् धारणा को पहचानते हुये भी कोई कोई अपना छोटा-सा व्यक्तित्व तजने से घबराते हैं। जिसे अपना क्षुद्र व्यक्तित्व