पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१३४

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कर्मयोग
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इतना प्रिय है, हम उससे पूछ सकते हैं कि ‌तुम्हारा यह “अपना- पन" उन पुरुष के आगे कहाँ रहता है जो पूर्ण रूप से निःस्वार्थ है, जो अपने लिये कोई बात नहीं सोचता, अपने लिये कोई शब्द नहीं कहता, और अपने लिये कोई कर्म नहीं करता। उसे उस अपने-पन का तान तभी तक रहता है जब तक वह अपने लिये कुछ सोचता, कहता या कोई कर्म करता है। यदि उसे औरों का, संसार का, उस अनंत का भान हो जाय तो उसका वह “अपना- पन" कहाँ रहे? वह सदा के लिये भाग जाय।

कर्मयोग अतः एक ऐसा आचार-विचार-समुच्चय, ऐसा धर्म है जिसमें शुम कर्मों और स्वार्थ-त्याग द्वारा मुक्ति लाभ होता है। कर्मयोगी के लिये आवश्यक नहीं, वह किसी मत-मतान्तर में विश्वास करे; वह ईश्वर में विश्वास न करे, उसकी आत्मा क्या है, इस पर कभी विचार न करे, न किसी दार्शनिक गुत्थी पर माधा-पशी करे। उसका अपना एक लक्ष्य है, स्वार्थ-त्यागी होना उसे स्वयं उसकी सिद्धि करनी होगी। प्रत्येक क्षण उसे अनुभूति होनी चाहिए क्योंकि उसे अपना मार्ग बिना किसी मत और विचार की सहायता के केवल कर्म द्वारा पार करना है। उसी समस्या को ज्ञानी अपने ज्ञान द्वारा और भक्त अपनी भक्ति द्वारा सुलझाता है।

अब दूसरा प्रश्न आता है, यह कर्म क्या है ? शुभ कम का क्या अर्थ है ? क्या हम संसार की भलाई कर सकते हैं ? सच पूछा जाय तो नहीं देखने को, हाँ । संसार की कोई अमर