पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३८
कर्मयोग
 

अमिट भलाई नहीं की जा सकती; यदि की जा सकती तो यह संसार यह संसार न होता। पाँच मिनट के लिये किसी की क्षुधा तुम शांत कर सकते हो परन्तु उसके पश्चात् उसे फिर भूख लगेगी, किसी भी प्रकार की तृप्ति जो हम एक व्यक्ति की कर सकते हैं, क्षणिक होगी। इस सुख व दुख के अनवरत क्रम का कोई अंत नहीं कर सकता। क्या संसार को सदा सुखी बनाया जा सकता है? समुद्र में हम एक लहर नहीं उठा सकते जब तक अन्यत्र एक गहर न हो। मनुष्य की आवश्यकताओं और वाञ्छाओं के अनुसार सुख की सामग्रियाँ संसार में सदा समान रही हैं। न वे घट सकती हैं, न बढ़ सकती हैं। इतिहास का जैसा हमें ज्ञान है, उसे देखिये। क्या हमें सर्वत्र वेही सुख, वेही दुख, वेही विलास, वेही विषाद, पारस्परिक वेही भेदभाव नहीं दिखाई देते? कोई धनी, कोई निर्धन, कोई ऊँच, कोई नीच, कोई रोगी, कोई नीरोग, क्या यही सब काल सर्वत्र नहीं दिखाई देता? ये सब पूर्वकाल में मिश्र, यूनान और रोमवालों के लिये वैसे ही थे, जैसे आज अमेरिकावालों के लिये हैं। जहाँ तक इतिहास की गति हुई है, दशा ऐसी ही रही है। साथ ही साथ हम यह भी देखते हैं; सुख दुख के असाध्य भेदभावों के होते हुये भी उन्हें कम करने का सतत प्रयत्न किया गया है। प्रत्येक देश और काल में ऐसे नर-नारी जन्मे हैं जिन्होंने दूसरों का मार्ग सुखद बनाने के लिये घोर श्रम किया है; पर उन्हें कहाँ तक सफलता मिली है? हम गेंद को इधर से उधर मारने का ही खेल खेल सकते हैं।