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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/३७

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कर्मयोग
 

ऐसा सुन्दर पुरुष मिला ही न था। यह स्वयंवर सबसे विशद था; इसमें सबसे अधिक पुरुष एकत्र हुये थे। बड़े ही राजसी ठाट का दृश्य था। सिंहासन पर चढ़ी राजकुमारी आई और वाहक उसे एक स्थल से दूसरे स्थल ले गये। उसे जैसे किसी की ओर झुकाव ही न होता; सब लोग सोचने लगे, यह स्वयंवर भी वृथा होगा। वैसे ही वहाँ एक संन्यासी युवा आता है, इतना सुन्दर मानों भगवान् भास्कर ही पृथ्वी पर उतर आये हों। सभा के एक कोने में तमाशा देखने के लिये वह भी खड़ा हो जाता है। सिंहासनासीन राजकुमारी उसके पास आती है, सुन्दर संन्यासी को देखते ही मुग्ध हो वह खड़ी हो उसके गले में जयमाला डाल देती है। युवा संन्यासी जयमाला लेकर फेक देता है और कहता है--"यह कैसी व्यर्थ की बात है? मैं संन्यासी हूँ। मेरे लिये विवाह क्या?" वहाँ का राजा सोचता है, शायद यह पुरुष निधन है इसलिये राजकुमारी से विवाह करने का साहस नहीं रखता। वह संन्यासी से कहता है--"राजकुमारी के साथ मैं तुम्हें आधा राज्य दूँगा; और मेरे बाद तुम पूरे के अधिकारी होगे।" जयमाला फिर उसके गले में डाल दी जाती है। संन्यासी उसे एक बार और निकाल देता है--"यह सब व्यर्थ है। मैं विवाह नहीं करना चाहता"--कहकर वह सभा से निकलकर बाहर चला जाता है।

अब राजकुमारी उस संन्यासी पर इतना आसक्त हो गई थी कि उसने कहा कि "मैं विवाह करूँगी तो इसी के साथ, नहीं तो प्राण तज दूँगी।" उसे लौटाने के लिये वह उसके पीछे चली।