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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/६७

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कर्मयोग
 


एक संन्यासी ने बन में जाकर तपस्या की और बहुत दिनों तक योगाभ्यास किया। बारह वर्ष तक कठिन परिश्रम और अभ्यास करने के पश्चात् वह एक दिन वृक्ष के नीचे बैठा था कि उसके सिर पर कुछ सूखी पत्तियाँ गिरी। उसने ऊपर दृष्टि उठाई, तो कौए और सारस को लड़ते देखा। उसे बड़ा क्रोध आया। "क्या?" उसने कहा। "तुम्हारी इतनी सामर्थ जो मेरे उपर तुम सूखी पत्तियाँ गिराओ?" और जैसे ही क्रोध- भरी दृष्टि से उसने उन्हें देखा, तो उसके मस्तक से आग की लपट छूटी-उसकी शक्ति ही ऐसी थी और वे चिड़ियाँ भस्म हो गईं। वह बहुत प्रसन्न हुआ, अपने भीतर शक्ति के इस विकास से वह फूला न समाया, एक दृष्टि निक्षेप मात्र से वह कौए और सारस को भस्म कर सकता था! कुछ समय बाद उसे नगर में भिक्षा के लिए जाना पड़ा। एक दरवाजे के पास खड़े हो उसने कहा-"माँ, भिक्षा मिले।" भीतर से आवाज आई,-"वेटा, थोड़ी देर धीरज रक्खो।” युवक ने सोचा,-"ओ क्षुद्र स्त्री, तेरी मजाल जो मुझे धीरज रखने को कहती है! तुझे अभी मेरी शक्ति का पता नहीं।" वह ऐसा सोच ही रहा था कि भीतर से फिर आवाज आई,-"बच्चे, अपनी शक्ति का बहुत गुमान न कर, यहाँ न तो कौआ है, न सारस।" वह आश्चय में पड़ गया, फिर भी उसे ठहरना पड़ा। अंत में एक स्त्री आई और उसके चरणों पर गिर वह बोला,-"माता तुम्हें यह सब कैसे मालूम हुआ ?" उसने कहा,-"पुत्र, मुझे तुम्हारा