अपने मस्तिष्क का अध्ययन किया। उसने अपने मन की पूर्व
विचार-श्रृंखलाओं को पुनः एकत्र किया और उनमें उसे एक नई
श्रृंखला का पता चला जिसे हम 'आकर्षण-शक्ति का नियम' कह
कर पुकारने लगे। वह उस सेव अथवा पृथिवी की केंद्रस्थित
किसी वस्तु में न था। इस भाँति सभी ज्ञान, लौकिक वा पारलौकिक
मनुष्य के चित्त में हैं। अनेक बार उनकी खोज नहीं हो पाती,
वह आवृत रह जाते हैं। जब आवरण धीरे-धीरे हटता जाता है
तब हम कहते हैं कि हम सीख रहे हैं और सभी ज्ञान का विस्तार
इस खोज के क्रम से ही होता है। जिस मनुष्य पर से यह आव-
रण उठता जाता है, ज्ञानी होता है, जिस पर वह गहरा पड़ा
होता है, वह मूर्ख होता है और जिस पर से बिलकुल हट जाता है
वह सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी हो जाता है। सर्वज्ञ मनुष्य हो चुके हैं
और मुझे विश्वास है, अभी होंगे। भावी सृष्टि-क्रम में वे अन-
गिनती होंगे। चकमक पत्थर में निहित अग्नि की भाँति ज्ञान
मनुष्य के भीतर है; संकेत ही वह संघर्ष है जिससे उस अग्नि
की उत्पत्ति होती है। इसी भाँति हमारे कर्म और भावनाएँ—रोना-
हँसना, सुख-दुख, अभिशाप-अशीश, प्रशंसा-निंदा,—अपने
आपको शांति-पूर्वक मनन करने पर इनमें से प्रत्येक को हम
विभिन्न वाह्य प्रहारों से अपने भीतर ही उत्पन्न हुआ देख सकता
है। उसका फल हम हैं; इन सब प्रहारों का समष्टि-नाम कर्म
है। प्रत्येक मानसिक वा शारीरिक प्रहार जो आत्मा से वन्हि-
स्फुरण करने के लिये, उसे अपनी उचित शक्ति और ज्ञान को
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कर्मयोग
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