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नियमो से। इस पर आदेश रखनेवाले केवल नित्य और सर्वगत धर्मनियम (Categorical Imperatives) हैं। ये धर्म नियम व्यवसायात्मिका बुद्धि के स्वप्रवर्तित नियम हैं। कर्मसंकल्पवृत्ति का यह आत्मशासन (Autonomy of the will) हमे नामरूपात्मक दृश्य जगत से अगोचर चिन्मय जगत् मे ले जाता है जहाँ हमे धर्मनियम, स्वतंत्र अमर आत्मा और ईश्वर का अस्तित्व मिल जाता है। इसी धर्मशासन द्वारा कान्ट ने ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन किया है। जीवन का चरम मंगल क्या है? न अकेला धर्म, न अकेला सुख। धर्म का सुख से कोई स्वतःसिद्ध संबंध नहीं। जीवन क चरम मंगल मे धर्म और सुत्न दोनों की पराकाष्ठा है। अब इन दोनो का संयोग होता कैसे है? इसके लिये ईश्वर का अस्तित्व मानना पड़ता है। ईश्वर दोनो के बीच सयोग का स्थापक है। इसी प्रकार आत्मा का अमरत्व भी मानना पड़ता है। धर्म की पराकाष्ठा और सुख की पराकाष्ठा के माधन के लिये यह अल्पकालिक जीवन काफी नहीं है। अतः अनन्त जीवन मानकर चलना पडता है।

कुछ लोगों को व्यवसायात्मिकाबुद्धि-संबंधी इस निरूपण का कान्ट के दर्शन की मूलभित्ति के साथ विरोध दिखाई पडता है। पहले तो उसने यह कहा कि प्रत्यक्षानुभव के रूप में जिन मानस संस्कारो की उपलब्धि होती है उन्हें लेकर बुद्धि जो कुछ निरूपित करेगी वह भी मानस वस्तु होगी, चित् का ही स्वरूप होगा; पीछे उसने कहा कि धर्म की गाथा के लिये वह वास्तव ( चित्तनिरपेक्ष ) पदार्थों का