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शोपेनहावर ने सब से जड़ और दुःखमयी प्रवृत्ति को ही जगत् के मूल मे रखा है। उसका यह दुःखवाद जर्मनी में निट्शे ने ग्रहण किया और अपनी चमत्कारपूर्ण अनोखी उक्तियो द्वारा अपने देश मे एक इंद्रजाल सा फैला दिया। वह शोपेनहावर के दर्शन से जड़ प्रवृत्ति या संकल्पशक्ति को ले कर विकाशवाद की ओर ले गया और कहने लगा कि जीवन की यही कामना विकाश के इस नियम मे देखी जाती है कि 'जो जीव समर्थ होते है वे ही रह जाते हैं और सब नष्ट हो जाते हैं' । प्रकृति द्वारा जीवित रहने का अधिकार बलवानो को ही प्राप्त है। वे दुर्बलो को संसार से हटा कर अपने लिये--अपने ज्ञान, बल, वैभव आदि के पूर्ण विस्तार के लिये---जगह करे और इस प्रकार 'ग्रहण पद्धति' द्वारा एक मनुष्योपरि योनि का विकाश करे। इस मनुष्योपरि योनि के विकाश के उन्माद मे जर्मनी ने हाल मे जो करतब किए उन्हे संसार देख चुका है।

यद्यपि भारतीय वेदांत की पद्धति योरप की ज्ञानपरीक्षावाली पद्धति से भिन्न है पर अंत मे दोनो दर्शन किस प्रकार एक ही सिद्धांत पर पहुँचे है यह बात ध्यान देने योग्य है। वेदांत यह मान कर चला है कि क्रिया परिणाभिनी है, पर चैतन्य अपरिणामी है। एक क्रिया दूसरी क्रिया के रूप मे परिणत होती है पर उन क्रियाओ का ज्ञान सदा वही रहता है। बुद्धयादि अंतःकरण की सब वृत्तियाँ जड़ क्रिया के अंतर्गत की गई है, केवल उनका ज्ञान अविकृत रूप से स्थित कहा गया है। खंडज्ञान या विज्ञान का कारण बुढ्यादि क्रिया की विच्युति