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अध्ययन ही कर रहे हैं, स्वयं प्राणशक्ति का अर्थात् मन और चेतना का अध्ययन तो वे करते नहीं हैं, उनको तो वे अपनी छानबीन के बाहर रखते हैं। भूस ही हमारी इंद्रियो को ग्राह्य है। भूतवाद भौतिक जगत के उपयुक्त है, पर दार्शनिक सिद्धांत के रूप मे नही, बल्कि चलते हुए व्यापार की व्यवस्था के रूप में, बीच की कारणपरंपरा के अनुसंधान के रूप मे। इसके परे जो बाते है वे दूसरे क्षेत्र की है और दूसरे उपायो से मानी जाती है। आध्यात्मिक बातो को रसायन और भूतविज्ञान के शब्दो मे बताना असंभव है, इसीसे उनका अस्तित्व ही अस्वीकार किया जाता है, वे केवल भ्रान्तिलक्षण मानी जाती है। पर ऐसी अनधिकार मीमांसा अनुचित है।

प्राणशक्ति का पता प्रयोगशालाओ मे नहीं लगता है। केवल उसकी रासायनिक और भौतिक अभिव्यक्ति ही देखी जाती है, पर यह मानना पड़ेगा कि वह एक विशेषरूप से भूतो का परिचालन करती है। उसे हम तटस्थ (Catalytic जो स्वय विकारप्राप्त न हो कर भी दो रासायनिक द्रव्यो मे विकार उत्पन्न करता है ) परिचालक कह सकते है। प्राणशक्ति के व्यापारो को समझने के लिए हमे सूक्ष्म जीवो की ओर न जाना चाहिए, स्वयं अपने मे उसका अधिक व्यक्त आभास समझ अपने ही अनुभवो की ओर ध्यान देना चाहिए।"

जगत् मे चारों ओर क्रमव्यवस्था देखते हुए भी लोग जो नित्य चैतन्य का अधिष्ठान रूप से अस्तित्व अस्वीकार करते हैं, लाज के अनुसार यह उनकी दृष्टि की संकीर्णता है। उन्होंने कहा है--