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बढ कर अधिभौतिक शास्त्र के एक परम गुण का प्रतिपादन है जिसके अंतर्भूत समस्त भौतिक और रासायनिक गुण है। सृष्टि-संबंधी इस मूल सिद्धांत द्वारा यह स्थिर हो चुका है कि द्रव्य और शक्ति ( गति ) दोनों नित्य है और संपूर्ण ब्रह्मांड मे सदा एकरस रहते हैं। यही सिद्धांत हमारे तत्त्वाद्वैतवाद का आधार है जिसके द्वारा हम सृष्टि-रहस्य के उद्घाटन मे प्रवृत्त हो सकते है।

इस परमतत्त्व के प्रतिपादन के साथ ही साथ इसका पोषक एक दूसरा आविष्कार भी हुआ जिसे विकाश-वाई कहते है‌। यद्यपि हजारो वर्ष पहले कुछ दार्शनिको ने पदार्थों के विकाश की चर्चा की थी, पर यह जगत् "परमतव के विकाश" के अतिरिक्त और कुछ नहीं है यह उन्नीसवी शताब्दी मे ही पूर्ण रूप से स्थिर किया गया। उक्त शताब्दी के पिछले भाग मे ही यह सिद्धांत स्पष्टता और पूर्णता को पहुँचा। इसके नियमो को प्रत्यक्ष के आधार पर स्थिर करने और संपूर्ण सृष्टि मे इसकी चरितार्थता दिखाने का यश डारविन को प्राप्त है। सन् १८५९ मे उसने मनुष्य की उत्पत्ति के उस सिद्धांत को एक दृढ़ नीव पर ठहराया जिसका ढॉचा कुछ कुछ फरासीसी प्राणिवेत्ता ला-मार्क ने खडा किया था और जिसका आभास भविष्यद्वाणी के समान जर्मनी के सब से बड़े कवि गेटे ने सन् १७९९ मे दिया था। आज जो हम इस विकाश-क्रम को तथा सृष्टि के बीच समस्त प्राकृतिक व्यापारो को समझने मे समर्थ हुए है वह इन्ही तीन नररत्नो के प्रयत्न का फल है।