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जिन्हें सुन कर अफसोस आता है। न्यायाधीशो की भूले अधिकतर इस कारण होती हैं कि वे अच्छी तरह तैयार नही रहते। उनकी ठीक शिक्षा नहीं होती। कानून की शिक्षा ही उनकी शिक्षा कहलाती है। पर यह शिक्षा कुछ पारिभाषिक शब्दो और कुछ लोगो के बनाए हुए नियमो की उद्धरणी के अतिरिक्त और है क्या? न तो वे शरीरतत्त्व को जानते है और न उसके उन व्यापारो को जिसे 'मन' कहते है। उन्हे यह सब जानने के लिये समय कहाँ? उनको समय तो इधर उधर की बातो तथा नजीरो को याद करने मे जाता है।

शासन-व्यवस्था पर विशेष कहने की आवश्यकता नहीं, क्योकि उसकी वर्तमान शोचनीय दशा सब पर विदित है। इस दशा का मुख्य कारण यह है कि वर्तमान शासकवर्ग के लोग उन सामाजिक संबधो से अनभिज्ञ होते हैं जिनके मूल रूपो का पता जंतुविज्ञान, विकाशवाद, घटकवाद तथा कीटाणुवाद के अध्ययन द्वारा मिलता है। राष्ट्ररूपी समाजशरीर के संघटन और जीवन का ठीक ठीक ज्ञान हमे तभी हो सकता है जब हम उन शक्तियो के संघटन और व्यापार का जिनसे वह बना है तथा उन घटको का जिनसे कि प्रत्येक व्यक्ति बना है, वैज्ञानिक परिज्ञान प्राप्त करे। दूसरा बुरा प्रभाव जो शासन-संस्थाओ की उन्नति का बाधक है वह मत या मजहब का है। जब तक वैज्ञानिक शिक्षा के प्रचार द्वारा मनुष्य और जगत् की प्राकृतिक स्थिति का परिज्ञान सर्वसाधारण को न कराया जायगा तब तक शासन मे उन्नति नही हो सकती। राष्ट्र चाहे एकतंत्र हो चाहे लोकतंत्र (पंचायती)