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के अंतर्गत सारे कृमि, कीट आदि हैं जिनसे क्रमशः शंबुक ( सीप, घोघे आदि ), रज्जुदंडजीव ( जिनके शरीर में रीढ़ के स्थान पर रज्जु के आकार का एक लचीला दंड होता है ) और मेरुदंड जीव हुए है।

यही मेरे द्विकलघटसिद्धांत का सारांश है। पहले तो इसका चारो ओर से विरोध किया गया पर अब इसे प्राय सब वैज्ञानिको ने स्वीकार कर लिया है। अब देखना यह है कि इससे क्या क्या परिणाम निकलते है। बीज के इस विकाशक्रम की ओर ध्यान देने से सृष्टि के बीच मनुष्य की क्या स्थिति निर्धारित होती है?

और जंतुओ के समान मनुष्य का रज.कीटाणु भी एक सादा घटक मात्र है। यह सूक्ष्म घटकांड ( जिसका व्यास १० इच के लगभग होता है ) आकार प्रकार में वैसा ही होता है जैसा कि और सजीव डिभप्रसव करनेवाले जीवो का। कलल की सूक्ष्म गोली एक झलझलाती हुई झिल्ली से आवृत रहती है। यहाँ तक कि कललरस की इस गोली के भीतर जो वीजाशय या गुठली होती है वह भी उतनी ही बड़ी और वैसी ही होती है जितनी बड़ी और जैसी और स्तन्य जीव मे। यही बात पुरुष के शुक्रकीटाणु के विषय मे भी कही जा सकती है। ये शुक्रकीटाणु भी सूत ( या अलपीन ) के आकार के रोएँदार अत्यंत सूक्ष्म घटक मात्र है जो वीर्य के एक बूंद मे न मालूम कितने लाख होते है। इन दोनो मैथुनीय घटकों की उत्पत्ति समस्त स्तन्य जीवो में समान रूप से अर्थात् मूल बीजकलाओं से होती है।