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हैं। इसीसे दर्शन और मनोविज्ञान में जितना मतभेद देखा ज्ञाता है उतना और किसी विज्ञान में नहीं।

जिसे आत्मा कहते हैं वह, भेरी समझ में, एक प्राकृतिक व्यापार मात्र है। अतः मनोविज्ञान को मैं आधिभौतिक शास्त्रों की ही एक शाखा और शरीरविज्ञान का ही एक अंग समझता हूँ। मैं इस बात को जोर दे कर कहता हूँ कि इस विज्ञान के तत्वों का अन्वेषण भी उन्हीं प्रणालियों से हो सकता है जिन प्रणालियों और विज्ञान के तत्त्वों का हो सकता है। पहले तो हमें प्रत्यक्षानुभव से परीक्षा करनी चाहिए. फिर विकाशसिद्धांत का आरोप करना चाहिए। इसके उपरांत शुद्ध तर्क के आधार पर चिंतन करना चाहिए। मनोविज्ञान के संबंध में पहले द्वैत और तृत्त्वाद्वैत सिद्धांतों का थोड़ा वर्णन कर देना आवश्यक है।

मानसिक व्यापार के संबंध में साधारण विश्वास जिसका हमें खंडन करना है, यह है कि शरीर और आत्मा पृथक् पृथक् सत्ताएँ हैं। ये दोनों सत्ताएँ एक दूसरे से सर्वथा पृथक् पृथक् रह सकती हैं, यह आवश्यक नहीं कि दोनों संयुक्त ही रहें। यह सावयव शरीर नश्वर और भौतिक है अर्थात् कललरस तथा इसके विकारों के रासायनिक यौग से संघटित है। पर आत्मा अमर तथा भूतों से परे एक ऐसी स्वतंत्र सत्ता है जिसके गूढ़ व्यापार बोधगम्य नहीं हैं। यह मत आध्यात्मिक पक्ष का है, इसके विरद्ध जो मत है वह आधिभौतिक पक्ष का कहा जा सका है। यह आध्यात्मिक मत सर्वातीतवादी है क्योंकि यह ऐसी शक्तियों का अस्तित्व मानता है जो बिना भौतिक