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आश्रय के काम करती हैं। इसके अनुसार प्रकृति से परे और बाह्य एक अभौतिक आध्यात्मिक जगत् है जिसका हमे कुछ भी अनुभव नहीं और जिसका कुछ भी ज्ञान हम भौतिक परीक्षाओ द्वारा नही प्राप्त कर सकते।

यह 'आध्यात्मिक जगत्,' जो भूतात्मक जगत् से सर्वथा स्वतंत्र माना गया है और जिसके अधार पर द्वैतवाद खड़ा किया गया है, कवि-कल्पना मात्र है। यही बात 'आत्मा के अमरत्व' सबंधी विश्वास के विषय मे भी कही जा सकती है जिसकी असारता आगे चल कर दिखाई जायगी। यदि अध्यात्मवादियो के विश्वास का कोई दृढ़ आधार होता तो मानसिक व्यापार प्रकृति या परमतत्व के नियमाधीन न होते। दूसरी बात यह कि प्रकृति के नियम-बंधनो से मुक्त सत्ता यदि मानी जाय तो यह आवश्यक है कि वह सृष्टि के पिछले कल्प मे ही प्रकट हुई होगी जब कि मनुष्य आदि उन्नत जीवो का प्रादुर्भाव हो चुका होगा, क्योकि भूतो से परे आत्मा की धारणा मनुष्य आदि के मानसिक व्यापारो को देख कर ही हुई है। * आत्मा की इच्छा किसी प्रकार के नियमो से बद्ध नहीं है, सर्वथा स्वतंत्र है, यह मत भी भ्रांत है।

हमारे प्राकृतिक निरूपण के अनुसार आत्मा की क्रिया द्रव्यशक्ति-संभूत ऐसे व्यापारो का संघात है जो और


  • भारतीय तत्ववेत्ताओ ने मनुष्य से लेकर कीटपतग तक मे आत्मा को माना है। डेकार्ट आदि कुछ पाश्चात्य दार्शनिको ने मनुष्य में ही 'आत्मा' मानी है,पश्वादिको मे नहीं।