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( परंपरा मिलान करने की ) और गर्भविधान-निरीक्षण प्रणाली ही विशेष उपयोगी है।

मनुष्य और दूसरे उन्नत जंतुओं (जैसे कुत्ते, बंदर आदि) के मनोव्यापारो मे जो विलक्षण सादृश्य है वह सव पर प्रकट है। प्राचीन दार्शनिक मनुष्य की आत्मा और पशु की आत्मा मे कोई 'वस्तुभेद' नही समझते थे, केवल मात्राभेद समझते थे। ईसाई मत के कारण योरप मे लोग मनुष्य की अमर आत्मा और पशु की नश्वर आत्मा मे भेद मानने लगे। इस भेद पर डेकार्ट आदि द्वैतवादी दार्शनिको ने और भी लोगों का विश्वास जमा दिया। डेकार्ट सन् ( १६४३ ) कहता था कि केवल मनुष्य ही को वास्तविक आत्मा है, मनुष्य ही मे संवेदन और स्वतंत्र इच्छा प्रयत्न आदि होते है। पशु केवल जड़ मशीन के तुल्य है, उनमे किसी प्रकार की संवेदना या इच्छा प्रयत्न आदि नही है * । डेकोर्ट के पीछे योरप में बहुत दिनो तक लोगो की यही धारणा रही।

उन्नीसवीं शताब्दी के पिछले भाग में जीवसृष्टिविज्ञान और शरीरविज्ञान की उन्नति के साथ पशुओ के मनोव्यापारो की ओर भी तत्ववेत्ताओ का ध्यान गया। मूलर ने अपने शरीर विज्ञान के गूढ़ अन्वेषणो द्वारा पशुबुद्धि-परीक्षा का मार्ग सुगम कर दिया। डारविन के पीछे उसके विकाशसिद्धांत का प्रयोग मनोविज्ञान के क्षेत्र मे भी किया गया।


  • न्याय और वैशेषिक ने इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि को आत्मा का लिंग या लक्षण माना है।