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या आत्मव्यापार भी अपना रूप बदलते रहते हैं-अर्थात् आत्मा भी सदा एकरूप नहीं रहती।

भिन्न भिन्न श्रेणियो के जीवो के मनोव्यापारो को परस्पर मिलान करनेवाली विद्या को तारतम्यिक मनोविज्ञान कहते है। इसके लिए यह आवश्यक है कि जिस प्रकार जीवसृष्टि विज्ञान * मे जीवो की ऊँची नीची परंपरा का क्रम स्थिर है उसी प्रकार मनोव्यापारो की ऊँची नीची परंपरा का क्रम भी स्थिर किया जाय। ऐसा होने से ही हम समझ सकते है कि किस प्रकार एकघटक अणुजीव के क्षुद्र व्यापारो से ले कर मनुष्य के उन्नत मनोव्यापारो तक एक अखंडित श्रृंखला बँधी हुई है। मनोव्यापारो का यह श्रेणी-भेद मनुष्य की भिन्न जातियो मे भी परस्पर देखा जाता है। एक अत्यंत असभ्य जाति के जगली मनुष्य की बुद्धि मे और एक अत्यंत सभ्य जाति के मनुष्य की बुद्धि मे बड़ा भारी भेद होता है। इसी भेदपरपरा के अन्वेषण के विचार से असभ्य बर्बर जातियो की जॉच की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है, मनोविज्ञान के तत्वो के निरूपण के लिए भिन्न भिन्न मनुष्य जातियो का विवरण बड़े काम को माना जाने लगा है।

मनोविज्ञान मे आत्मा के क्रमविकाश का निरीक्षण बहुत जरूरी है। इसके द्वारा जितनी जल्दी हम मिथ्या धारणाओ ओर भ्रमो को हटा कर आत्मवृत्तियो के यथार्थ रूप का आभास पा सकते हैं उतनी जल्दी और किसी प्रणाली के द्वारा नही। विकाश के दो रूप मै पहले बतला चुका हूँ-गर्भ


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