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जा चुका है कि बहुत से अणुजीव ऐसे होते हैं जिनके आवरणों पर एक दूसरे से भिन्न प्रकार की रचनाएँ होती हैं। परीक्षा द्वारा देखा गया है कि किसी एक विशेष रचना के आवरणवाले जीव से विभाग आदि द्वारा जो दूसरे जीव उत्पन्न होते हैं उनके आवरण पर भी ठीक ठीक उसी प्रकार की रचना होती है। रचना का यह क्रम बराबर पीढ़ी दर पीढ़ी चला जाता है।

(२) तंतुगत स्मृति--घटको के समान घटकजाल में भी अचेतन स्मृति पाई जाती है। स्पंज आदि समूहपिंड बना कर रहनेवाले जीवा में भी एक समूहपिंड के संस्कार उसने उत्पन्न दूसरे पिंडों में भी बराबर चल चलते हैं।

(३) उन्नति की तीसरी अवस्था में इन जीवों की चेतना रहित स्मृति हैं जिनमें विज्ञानमय कोश रहता है। यह अचेतन स्मृति उस अचेतन अत संस्कारों की पुनरुद्भावना है जो संवेदनसूत्र ग्रंथियो में संचित होने जाते हैं। क्षुद्र कोटि के अधिकांश जंतुओं में स्मृति अचेतन रहती है अर्थात् अंतः-संस्कारों की धारणा के अनुसार जो शारीरिक व्यापार होते हैं उनका कुछ भी ज्ञान ऐसे जंतुओ को नहीं होता। वे व्यापार केवल शरीरधर्म समझे जाते हैं। मनुष्य आदि पूण अंतकरणवाले जीवों मे भी यदि देखा जाय तो चेतन की अपेक्षा अचेतन स्मृति के ही व्यापार अधिक पाए जायँगे। हाथ पैर हिलाने, चलने फिरने, बोलने, खाने पीने इत्यादि क्रियाओं को यदि लीजिए तो इनमें न जाने कितनी ऐसी निकलेगी जिनकी ओर हमारा बिलकुल ध्यान नहीं रहता, जो अज्ञानकृत होती हैं।

(४) चेतन स्मृति का व्यापार मनुष्य आदि उन्नत प्राणियों