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आत्मविकाश की दो अवस्थाएँ कही जा सकती हैं---एक गर्भावस्था, दूसरी जीवनावस्था।

गर्भ में आत्मोपत्ति—मनुष्य का गर्भ साधारणत: नौ महीनों में पूरा होता है। इस बीच में बाहरी संसार से वह बिलकुल अलग रहता है और उसकी रक्षा के लिये केवल गर्भकोश ही नही रहता, आवरण की तरह लिपटी हुई झिल्लियाँ भी होती हैं। ये झिल्लियाँ सब सरीसृपो, पक्षियो और स्तन्यजीवो मे होती हैं। इन समस्त जीवों के भ्रूण झिल्लियो के जलपूर्ण कोश में रहते हैं। आघात से रक्षा का यह आयोजन आदिम सरीसृपो ने अत्यंत प्राचीन कल्प में प्राप्त किया था जब कि वे जल मे न रह कर जमीन पर घूमने और साँस लेने लगे थे। उनके पूर्वज जलस्थलचारी जंतु (मेढक आदि) अपने पूर्वज मत्स्यों के समान जल ही में रहते और साँस लेते थे।

उन रीढ़वाले जंतुओ के भ्रूण में जो जल मे रहते थे आदिम जीवो के बहुत अधिक लक्षण बहुत अधिक काल तक रहते थे जैसा कि आज कल की मछलियो और मेढकों में देखा जाता है। यह बात प्रायः सब लोग जानते है कि अंडे से निकलने के बाद मेढको के भ्रूण लंबी पूँछवाले कीड़ो के रूप मे होते हैं और केवल जल ही में तैरा करते है। इन बच्चो को साधारण भाषा मे छुछमछली कहते है। इनमें इनके पूर्वज मत्स्यो का ढाँचा बहुत काल तक बना रहता है। इनकी रहन सहन और संवेदना भी उन्हींकी सी होती है। ये गलफड़ों के द्वारा सॉस लेते हैं। फिर जब कुछ दिनो के उपरांत इनका विलक्षण