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जो और दूसरे दूधपिलानेवाले जीवो मे नही होती। इन्ही विशेषताओ के कारण मनुष्य मानसिक शक्तियो मे सब प्राणियो से बढ़ा चढ़ा है।

आधुनिक शरीरविज्ञान की इन बातो का समर्थन चिकित्साशास्त्र के अनुसंधानों द्वारा भी होता है। जब रोग के कारण मस्तिष्क का कोई भाग नष्ट हो जाता है तब उस भाग के द्वारा होनेवाला मानसिक व्यापार भी शिथिल या नष्ट होजाता है। इस बात से हम मन या अंत करण की भिन्न भिन्न वृत्तियो के स्थान बहुत कुछ निर्दिष्ट कर सकते है। अंत करण की किसी विशेष वृत्ति का स्थान यदि रुग्ण हो जाता है तो साथही वह वृत्ति भी नष्ट हो जाती, जैसे मस्तिष्क के भीतर वाणी का जो केद्र है यदि वह नष्ट होजाय तो आदमी गूगा हो जायगा। इस बात का प्रमाण तो हम नित्य ही पाते हैं कि मस्तिष्क के द्रव्य मे किसी प्रकार का रासायनिक परिवर्तन उपस्थित होने पर चेतना पर पूरा पूरा प्रभाव पड़ता है। कुछ पीने की चीजे ( जैसे चाय और कहवा ) ऐसी है जिनसे हमारी विचारशक्ति कुछ उत्तेजित होती है, कुछ ऐसी हैं (जैसे मद्य, भांग ) जिनसे हमारे मनोवेग उत्तेजित होते हैं। कपूर और कस्तूरी से मूर्छा या वेहोशी दूर होती है, ईथर और क्लोरोफार्म बेहोशी लाता है। यदि चेतना मस्तिष्क के अवयवो से सर्वथा स्वतंत्र कोई अभौतिक सत्ता होती तो ऐसा कैसे होता? जब मस्तिष्क के अवयव काम के नही रहते तब "अमर आत्मा" की चेतना क्या होती है?

इन सब बातो से सिद्ध होता है कि मनुष्य तथा और